विंध्याचल पर्वत की तलहटी में कालीपुर नाम का एक छोटा सा गांव था। उस गांव में राधेश्याम नाम का एक किसान अपने छोटे से परिवार के साथ रहता था।
राधेश्याम की पत्नी विनीता बहुत ही मृदु स्वभाव की विदुषी महिला थी। राधेश्याम और उनकी अर्धांगिनी दोनों ही माँ भगवती के परम उपासक थे। उनके दो बच्चे थे, जिनमे एक लड़की और एक दूसरा लड़का। लड़की उम्र में लड़के से बड़ी थी। लड़की का नाम स्नेहा और लड़के नाम विशाल था।
ईश्वर ने ना जाने किस पाप का प्रायश्चित करने के लिए स्नेहा को एक हाथ से दिव्यांग बना दिया था। अपनी बच्ची के दुःख को देखकर माँ और पिता को भी दुख होता था । लेकिन उन्होंने ईश्वर की इच्छा को शिरोधार्य कियाऔर अपने दोनों बच्चों में परवरिस की कमी नहीं आने दी।
स्नेहा बहुत ही कुशाग्र बुद्धि की थी और वह अपने माता पिता का साथ पाकर ” दूज के चाँद ” की तरह हर क्षेत्र की बुलंदियों को स्पर्श करते हुए गंगा के अविरल प्रवाह की तरह आगे बढ़ती ही गई। उसने अपने उपर अपनी विकलांगता को हावी नहीं होने दिया।
स्कूल में उसने हर विषय में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण किया था। उसके अंदर एक आत्मविश्वास था और हर आदमी या औरत के अंदर एक विशेष गुण होता है बस उसे तरासने की जरुरत होती है। माँ विनीता का साथ, पिता का प्रयास और भाई का विश्वास स्नेहा को आत्मगौरव की अनुभूति से भर देता था। जिससे वह अनवरत अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती ही जा रही थी।
स्नेहा अपनी पढाई पूरी करने के उपरांत गांव में ही सिलाई सिखाने का स्कूल खोल दिया। वह गांव के गरीब घर के लड़कियों को निःशुल्क पढाई और सिलाई सिखाने लगी, और खुद की आजीविका के लिए कपडे सिलकर बाजार के दुकानों में देने लगी।
माता पिता के आशीर्वाद से स्नेहा का यह कार्य बड़े पैमाने पर हो गया। उसके यहाँ से सीखी हुई लड़कियां स्वयं समर्थ होकर बड़े पैमाने पर आजीविका कमा रही थी। स्नेहा का काम बाजार के दुकानदारों को सस्ते और अच्छे भाव में मिल रहा था।
फलतः एक बड़ी फर्म के मालिक ने स्नेहा के साथ करोड़ों के व्यापार का करार किया और स्नेहा के इस प्रयास से वह अपने गांव के प्रत्येक घर से एक – एक औरतों को अपने यहाँ आजीविका देकर स्नेहा ने अपने गांव की दशा और दिशा दोनों बदल दी। उसने अपनी विकलांगता को ईश्वर का वरदान समझा और अपने मेहनत के बल पर सफलता की सीढ़ियां चढ़ती गयी।
Moral-
कभी खुद को कमजोर नहीं समझना चाहिए, बल्कि अपनी कमजोरी को ही अपनी ताकत बनानी चाहिए।
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