सफलता का रहस्य | Secret Of Success Story In Hindi

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  धनवंत और बलवंत दोनों सगे भाई थे । धनवन्त बड़ा होकर अपने एक दोस्त के साथ गल्ले का व्यापार करने लगा,  वहीं बलवंत जो कि अभी छोटा था वह फिर हाल अभी मौज मस्ती में ही लगा रहा।

  कुछ समय पश्चात दोनों की पैसो की आवश्यकताएँ, बढ़ने लगी चूंकि धनवन्त को व्यापार से थोड़ी आमदनी होने लगी थी तो उसे बढ़ते खर्चों से थोड़ी मुश्किल जरूर आ रही थी मगर फिर भी उसका काम चल जा रहा था ।वही बलवंत के पास कोई काम न होने से उसकी परेशानियां दिन ब दिन  बढ़ने लगी थीं । उसकी परेशानियों को समझते हुए बड़े भाई ने अपने हिस्से के सारे खेत उसको दे दिए ज्यादा खेत पाकर बलवंत की आमदनी बढ़ गयी । अब वह पहले से ज्यादा अच्छी स्थिति में था ।

  इधर काफी लगन और मेहनत के भरोसे धनवंत ने अपनी एक गल्ले की दुकान शहर के बीचोबीच जमा ली । दुकान काफी अच्छी चलने लगी । बलवन्त की समस्याएं कम जरूर हुई पर ज्यादा खेत के कारण काम का बोझ भी बलवंत पर बढ़ने लगा । ज्यादा मेहनत के कारण बलवंत इस काम से घबरा गया, उसने इस कठिन परिश्रम और उसके बदले बहुत कम पैसो का जिम्मेदार ईश्वर को ठहराया इसके लिए उसने भगवान को भी खूब कोसा ।

  गांव के हर शख्स से वह यही कहता,

एक तरफ मुझे देखो मैं ज्यादा मेहनत भी करता हूं फिर भी मुझे खाने पीने की कमी है और वही मेरा बड़ा भाई ठाट से दुकान में सेठ बना बैठा है । काम के लिए उसने नौकर भी लगा रखे हैं, उसे तो बैठकर केवल पैसा गिनना है, उसका काम बहुत आराम का है पर फिर भी उसके पास पैसा ही पैसा है । ईश्वर एक ही घर के दो बच्चों की किस्मत, एक की इतनी अच्छी और दूसरे की इतनी बुरी कैसे लिख सकता है । 
  गांव के ही एक शख्स ने बलवंत को समझाया कि असल पैसा तो व्यापार में है कृषि में नहीं, खेती में कहां पैसा रखा है यहां तो बस खून जलाना है और फिर तुमने तो अपने बड़े भाई के हिस्से की खेतों का जिम्मा भी अपने ही सर ले लिया अब जब कोई इतनी ढेर सारी जिम्मेदारियां निभाएगा तो भला वह दूसरा कोई नया काम कैसे सोच पाएगा और न ही उसके पास यह सब सोचने समझने के लिए फुर्सत होगी, मुझे ऐसा लगता है कि अब तो तुम्हारी ये पूरी जिंदगी सूरज की तपती धूप के नीचे खुद को जलाते बीत जाएगा । वहीं अपने बड़े भाई को देखो उसने क्या किया, उसने सही समय पर सही फैसला किया उसने जैसे ही इस बात को समझा की तरक्की तो व्यापार में है उसने अपने हिस्से की बची-कुची जमीन का बोझ भी, तुम्हारे ऊपर लाद दिया और खुद को जिम्मेदारियों से मुक्त कर लिया और और जिसका परिणाम आज दिखने लगा है, देखो वह कहां से कहां पहुंच गया जबकि तुम वहीं अपने खेतों में पौधों को पानी पिलाते रह गए और कुछ नहीं कर सके ।

  बलवंत को सारी बात समझ में आ चुकी थी वह समझ चुका था कि उसके सारे दुख और परेशानियों का जिम्मेदार ईश्वर नहीं बल्कि यह जमीनें हैं जिसमें वह अपना सारा समय और दिमाग खपा देता है और फिर न वह कुछ नया सोच पाता है और ना ही कर पाता है । उसने अपने अन्य रिश्तेदारों से भी यह बात कहना शुरू कर दिया और साथ ही उन के माध्यम से वह बड़े भाई से अपने जमीन को वापस लेने और जमीन का बंटवारा करके, उसके हिस्से की जमीन उसे देने की बात कहने लगा ।

   बड़े भाई को जब यह बात पता चली तो फौरन गांव वापस लौट आया उसने अपने छोटे भाई को अपने पास बुलाया और बड़े ही प्यार से उसे सारी बातें समझाने लगा, पर बलवंत की अक्ल पर तो मानो कोई ताला जड़ गया हो । उसे अपने ही बड़े भाई की सारी बातें कांटों की तरफ चुभने लगी थी । वह उसकी कोई बात समझना तो दूर सुनने को भी तैयार न था अंत मे मजबूरन धनवंत ने छोटे भाई के कहे के अनुसार जमीन का बंटवारा कर दिया और वापस शहर लौट आया, पर शहर आने के बाद भी उसे रोज अपने छोटे भाई की ही चिंता सताती रही गांव का कोई शख्स अगर दुकान के सामने से गुजरता तो धनवंत उनसे अपने भाई का हाल-चाल जरूर पूछता उधर बलवंत का बोझ कम हो गया था मगर कुछ भी वैसा नहीं हुआ जैसा गांव के लोगों ने उसे समझाया था । उसकी हालत बद से भी बदत्तर हो गयी थी । बलवंत वह उसकी बीवी बच्चों को कई रातें भूखे पेट गुजारनी पड़ रही थी । नतीजन वह पलट कर फिर से ईश्वर को कोसने लगा ।

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  जब यह बात बड़े भाई को पता चली तो उससे रहा नहीं गया । वह दौड़े गांव लौट आया पर बलवंत के व्यवहार में तनिक सा भी फर्क नहीं आया था वह जैसा पहले था आज भी वैसा ही था । वह आज भी अपनी गरीबी का सबसे बड़ी वजह ईश्वर को समझता था । वह ईश्वर को ही कोसने में लगा था । धनवंत ने उसे कुछ पैसा देते हुए अपने हिस्से की पूरी जमीन फिर से देने और उसपर उसे पुनः खेती करने को कहने लगा पर बलवंत इसके लिए तैयार नहीं हुआ । दोनों में बहस छिड़ गई बहस के दौरान बड़े भाई को समझ में आया कि बलवंत अपनी इस दशा का कारण खेती को समझता है । उसकी नजर में अगर वह व्यापार करता तो उसकी दशा कुछ और ही होती ।

  जब समझाने की सारी कोशिशें बेकार हो गई तो बलवंत ने गल्ले की दुकान की चाँबी अपने छोटे भाई को देने का निश्चय कर लिया और स्वयं खेती के कार्यों को करने का फैसला किया ।

  उसके इस फैसले को बलवंत झट से मान गया और माने भी क्यूँँ नही आखिर वह भी तो कुछ ऐसा ही करना चाहता था । उसने इस फैसले में खुशी जाहिर की, बस फिर क्या था बलवंत शहर की दुकान चलाने निकल पड़ा और इधर बड़ा भाई धनवंत खेती-बाड़ी के के कार्यों में जुट गया अब बलवंत की तो चांदी हो गई थी मानो उसकी पांचों की पांचों उंगलियां घी में हों ।

  उसने अपने भाई के दुकान पर बैठना शुरु कर दिया अब उसे भी दुकान में बैठकर बस पैसा ही गिनना था । अब परिवार का पेट भी भरने लगा । अब तो तकरीबन हर रोज उनकी दिवाली थी वह रोज कुछ अच्छा खाते अब तो हर रोज पार्टी जैसा माहौल था । अब बलवंत से उसकी बीवी बच्चे सब बहुत खुश थे और हो भी क्यों नहीं जिन्हें कई कई रातें भूखी गुजारनी पड़ी हो उनकी थाली मिष्ठान से भर जाए तो फिर भला ऐसे पिता को कौन नहीं धन्यवाद करना चाहेगा ।

  उधर धनवंत की हालत बिल्कुल अपने भाई जैसी हो गई थी रूखी सूखी खा कर ही उसे गुजारा करना पड़ रहा था । मगर उसने हिम्मत का साथ नहीं छोड़ा वह रोज सुबह ही अपने खेतों की तरफ निकलता और शाम होने तक उसमें खूब पसीना बहाता । माना की उसकी हिम्मत तोड़ने और उसकी दशा पर हंसने वालों की भी कमी नहीं थी मगर डिगने वालों में से धनवंत नहीं था ।

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  उसने खेती के नए तरीकों को को अपनाने और जानने में भी देर नहीं की तकरीबन एक साल होने को था ।धनवंत इतने दिनों में न सिर्फ खेती की बल्कि उसने पैसों का जुगाड़ करके गांव के छोटे किसानों का अनाज खरीदा और फिर खुद उसे शहर में ले जाकर बेचने लगा ।

  उससे जो कमाई होती उससे वह कर्ज लिए सूदखोरों का सूद अदा करता और बचे पैसों को वह अपनी पूंजी  बनाने में इस्तेमाल करता देखते ही देखते उसने काफी पूंजी इकट्ठा कर ली फिर क्या था उसने शहर में एक छोटी सी दुकान किराए पर ले ली अब वह सुबह के समय खेतों में पसीना बहाता और दोपहर होते-होते अपनी दुकान पर पहुंच जाता । अब तो उस की आमदनी दोगुनी हो गई थी ।

  धीरे-धीरे उसने अपने खेतों के लिए एक नौकर रख लिया और फिर वह दुकान पर ज्यादा समय देने लगा ।

  वही लोग जो कल तक उसकी दशा पर हंस रहे थे। उसका मजाक उड़ा रहे थे । आज उसकी ईमानदार और कठिन परिश्रम की प्रशंसा करते नहीं थकते । अब वह भरपेट भोजन करने लगा था । कमाई थोड़ी बढ़ते ही उसने दुकान पर भी एक नौकर रख लिया । देखते-ही-देखते धनवंत फिर सेठ बन चुका था । उसने अपनी पुरानी खोई जगह फिर से पा ली थी ।

  अब उसने दुकान और कृषि के लिए कई नौकरों की  व्यवस्था कर ली थी ।

  उधर बलवंत के शुरू के दिन तो खुशहाली मे गुजरे मगर ज्यों-ज्यों दिन बीतते गए, उसके जीवन की रंगत फीकी पड़ती गई क्योंकि उसने दुकान बिना मेहनत के पाई थी इसलिए मेहनत के बदले जो अनुभव प्राप्त होता है वह भी उसे नहीं था । इस काम के लिए वह बिल्कुल नया था । गुरुर में उसने इस विषय पर अपने बड़े भाई से राय तक लेनी जरूरी नहीं समझी हालांकि इनकम बढ़ाने के लिए उसने नए-नए तरीकों को अपनाना शुरू कर दिया पहले तो उसने कम पगार वाले नौकर रखने के लिए पुराने नौकरों को हटाकर नए नौकर रख लिए, जिनका इस व्यापार के विषय में अनुभव उसी की तरह शून्य था । फिर चूंकि उसके भाई के कारण दुकान की छवि शहर में काफी अच्छी थी इसलिए उसने सोचा क्यों न इसका फायदा उठाया जाए भैया तो सीधे थे जो काम वह नहीं कर सके क्यों ना वह काम मैं कर दिखाऊं ऐसा सोच कर उसने सामान के रेट में भी पहले से थोड़ी वृद्धि कर दी हालांकि बाजार भाव तो हर ग्राहक को लगभग पता होता है तो उसकी यह चालाकी कब तक छुपी रह सकती थी । बस इतना ही नहीं गल्ले के सामानों में उसने थोड़ी मिलावट करके गल्ले का वजन बढ़ा कर थोड़ा और मुनाफा कमाना चाहा परंतु यह बात भी तरकीब उसके लिए उल्टी पड़ी लोगों का भरोसा उसकी दुकान से उठने लगा देखते ही देखते उसके ग्राहक टूट गए ।

  कमाई धीरे-धीरे बढ़ने की बजाए घटने लगी मगर घर में पकवान आज भी हर रोज बनते । अब स्थिति बिल्कुल पहले जैसी थी यानी आमदनी कम खर्चे काफी ज्यादा, नतीजा यह हुआ कि बलवंत ने काफी पैसा मार्केट से उधार ले लिया जिसके बाद उस पर कर्ज और उसके सूद का बोझ और दबाव दोनों बढ़ने लगा । उसकी अक्ल ने काम करना बंद कर दिया और देखते ही देखते उसको अपनी वह दुकान भी गिरवी रखनी पड़ गई कोई रास्ता न पाकर बलवंत वापस गांव लौट आया ।

Moral Of The Story :-





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author

Karan Mishra

करन मिश्रा को प्रारंभ से ही गीत संगीत में काफी रुचि रही है । आपको शायरी, कविताएं एवं‌‌ गीत लिखने का भी बहुत शौक है । आपको अपने निजी जीवन में मिले अनुभवों के आधार पर प्रेरणादायक विचार एवं कहानियां लिखना काफी पसंद है । करन अपनी कविताओं एवं विचारों के माध्यम से पाठको, विशेषकर युवाओं को प्रेरित करने का प्रयत्न करते हैं ।

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