Short Story And Speech On Women’s Empowerment And Women’s Day In Hindi
रिक्सा रूकते ही पगली आकर खड़ी हो गई । दुर्बल शरीर, मैले कपड़े, बेतरतीब से बिखरे बालों में एक हाथ डाले, दूसरे हाथ को फैलाए खड़ी हो गई, रास्ता रोक कर। “पगली ” मैं मन ही मन बुदबुदाई ।दरअसल ये उसकी रोज की आदत थी , उस दिन मेरे झुंझलाहट भरी हुई थी और उसकी जिद्द देखकर मेरे अंदर की झुंझलाहट मेरी आँखों में उतर आई , और वह एक ओर खड़ी हो गई टुकुर-टुकुर ताकती हुई मानों मेरी झुंझलाहट के खत्म होने का इंतजार कर रही हो ।
मैं तब तक प्लेटफार्म पर आ गई थी । ट्रेन आने में देरी थी इसलिए एक जगह की तलाश की और बैठ गई । आदतन अपनी डायरी के पन्नों के साथ । समय काटने को इनसे अच्छा और कोई मित्र नहीं मिल सकता है । सहसा प्रतीत हुआ कि सामने कोई खड़ा है नजरें उठीं तो अटक सी गईं । वह मेरे सामने खड़ी थी मेरी आँखें उसकी आँखों से टकरायीं । अब तक लेखनी ने मेरी झुंझलाहट को थोड़ा हर लिया था शायद इसीलिए या फिर उसकी आँखों का आमंत्रण अधिक भारी पड़ रहा था मेरी झुंझलाहट पर निश्चित कर पाना मुश्किल था मेरे लिए ।
मैंने देखा कितनी बातें भरी हुई थीं उसकी आँखों में । दर्द की ऊँची ऊँची लहरों में बेबसी ,लाचारी ,तड़प, अकुलाहट, घृणा ,आक्रोश के मिले जुले भाव तैर रहे थे । मैं अपलक उसकी आँखों में डूबती जा रही थी ।ओह ! कितना दर्द था वहाँ । मैंने पूछा क्या हुआ- मेरा इतना पूछना ही काफी था उसकी आँखों से खारे पानी का रेला बह चला, वह रोती रही और मैं चुपचाप देखती रही उसे ।
उस दिन उसे क्या हुआ क्यों हुआ अब तक सवाल घुमड़ रहे हैं मेरे मन में । सब जानते थे पगली है । पर रो लेने के बाद उसने जो कहा वह हृदयविदारक चीख थी उसकी ।
“कभी वह एक अच्छे घर की बेटी थी”
समाज की दरिंदगी ने उसे यहाँ तक पहुँचा दिया था ।आज उसके मैले कपड़े, बिखरे गंदे बाल, आग उगलती आँखें रक्षा कवच हैं । वह पगली है ताकि समाज के गिद्धों से अपनी रक्षा कर सके ।
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वह अपने दर्द को बयाँ कर हँसते हुए चल दी जैसे कुछ हुआ ही न हो पर उसकी आँखों से सवाल थे अनगिनत सवाल- जो मुझे सोचने पर मजबूर कर रहे थे आज घर भी सुरक्षित नहीं रह गया तो कहाँ जाएँ लड़कियाँ । विश्व पटल पर महिला सशक्तिकरण का औचित्य क्या है? समाज में कुछ दरिन्दे ऐसे भी हैं जिनको हम देख कर भी अनदेखा करते हैं ।
एक दो दिन बाद अखबार पलटते हुए उसके पन्ने पर नजर ठहर गई , पगली की तस्वीर छपी थी । और लिखा था – ‘चालीस साल की एक विक्षिप्त औरत की लाश प्लेटफार्म पर पड़ी मिली’ आज भी मेरी आँखों में सवाल घूमते हैं-क्या दिवस मना लेने भर से सशक्तिकरण आ जाएगा ? क्या समाज को अपने सोच की दशा और दिशा बदलनी नहीं चाहिए?
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आप भी सोचिए कमी कहाँ है —– क्या हम सब जिम्मेदार नहीं? क्या समाज की सड़ी गली सारी बातें केवल मानने के लिए ही होती हैं? कब तक पगली मरती रहेगी ? कब तक हम आँखें मूंद कर दिवस मनाते रहेंगे? अब तो आँखें खोलो!
Writer
यह कहानी “डॉ बन्दना पाण्डेय जी” द्वारा रचित है । आप मधुपुर, झारखंड स्थित एम एल जी उच्च विद्यालय, में सहायक शिक्षिका हैं । आपको, कविता, कहानी और संस्मरण के माध्यम से मन की अनुभूतियों को शब्दों में पिरोना बेहद पसंद है । आप द्वारा लिखा गया लेख “एक चिट्ठी यह भी” आपके गहरे चिंतन पर आधारित है । अपनी रचना MyNiceLine.com पर साझा करने के लिए हम उनका हृदय से आभार व्यक्त करते हैं!
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