हर माँ की तरह जानकी देवी को भी, अपने जीते जी, कुल के दीपक यानी अपने पोते का मुख देखने की बहुत लालसा थी । वह मरने से पहले एक पोते का जरूर देखें लेना चाहती थी । उनके बेटे की शादी को काफी अरसा हो चुका था पर पोता तो छोड़ो पोती का मूख भी देखना जानकी देवी को अभी तक नसीब न हो सका था।
हालांकि जानकी देवी को पोती के नाम से ही चिढ थी । वह हमेशा अपने बहू से कहती .. .. .
“मुझे तो बस पोता ही देना, पोता काला हो या गोरा पर मुझे तो पोता ही चाहिए । अगर पोती हुई तो सीधे तुमको तुम्हारे मायके पहुंचा दूँगी । मैं पहले ही बता दे रही हूँ हाँ, फिर मुझे अपना मुख मत दिखाना”
बेचारी बहू मां जी को भली-भांति जानती थी । वह जितना औलाद न होने से दुखी थी । उससे ज्यादा, कहीं लड़की ही न पैदा हो जाए, इस बात से भयभीत थी । एक तरफ तो वह ईश्वर से संतान सुख की कामना करती और वहीं दूसरी तरफ मुझे पुत्री न देना इस बात की प्रार्थना करती । उसका जीवन हमेशा आशंकाओं से ही घिरा रहता ।
परन्तु माँ जी का पुत्र इन सब रुढ़िवादी विचारों से कोसो दूर, स्वयं मे सन्तुष्ट, हमेशा खुश तथा सबको खुश रखने वाला इंसान था । उसमें न तो पुत्र की चाहत थी और न ही पुत्री की, वह अपनी मां को भी बार-बार समझाता, मगर माँ उसकी ऐसी बातों को सुनकर बहुत नाराज होती । वैसे तो माँ जी को दवा-दारू पर तनिक भी भरोसा न था, हाँ मगर एक पोते की चाहत मे उन्होंने बहुत पूजा पाठ कराया और बहुत मिन्नतें मांगी ।
आखिरकार उनकी मुराद पूरी हुई उनकी बहू की गोद मे नई किरण के आगमन का आभास हुआ । पुरानी सोच की माँ जी ने पुराने तरीकों से अर्थात घर मे ही बहू का प्रसव कराना चाहा, मगर हालत बिगड़ता देख उसे शहर ले जाया गया ।
शहर जाते वक्त रास्ते मे ही बहू ने माँ जी को, एक बहुत ही सुंदर सा पोता, शुभम दिया । उसने माँ जी के अरमानों को तो पूरा कर दिया परन्तु इन सब के बीच वह स्वंय इस संसार को अलविदा कर गई । वो शहर पहुंचती कि उससे पहले ही रास्ते मे उसने दम तोड़ दिया ।
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शुभम के पिता मस्तमौला और दयालु स्वभाव के थे । वे अपनी कमाई में से सिर्फ 10 रूपये दालान के तखनी पर, महीना खर्च के लिए रखते और कमाया हुआ बाकी पैसा, गरीबों और जरुरतमंदों की सहायता में लगा देते । कमाई चाहे कम हो या ज्यादा वह अपने और परिवार के भरण पोषण के लिए सिर्फ 10 ₹ ही अपने पास रखतें । उनके इस आदत से जानकी देवी काफी नाराज रहती है । वे उन्हे बहुत समझाती और कहती … ..
“देखो बेटा तुम्हारी तबियत अक्सर खराब रहती है और मै अब भला कितने दिन जिऊंगी । शुभम अभी छोटा है कुछ पैसा उसके लिए तो बचा लो ।”
पिता माँ जी की बातों को बस हस कर टाल जाते । माँ के ज्यादा जोर देने पर वे कहते.. .. .
“फिक्र क्यूँ करती हो, माँ”
“सबके दाता राम”
वसूलों के पक्के पिता अब भी मात्र 10 ₹ ही अपने पास रखते और बाकी सब कुछ दान-धर्म में खर्च कर देते । कुछ ही दिनो बाद शुभम के पिता की पुरानी बीमारी से मृत्यु हो गई, जानकी देवी की तो सारी हिम्मत ही टूट गई । जवान बेटे को विदा करने का गम, वह ज्यादा दिन सहन न कर सकीं, मात्र 13 वर्ष की उम्र में शुभम दुनिया में बिल्कुल अकेला रह गया ।
कई दिनों से भूखे प्यासे बेटे को याद आया कि महीना खर्च के लिए, उसके पिता दालान की तखनी पर 10 रूपये रखा करते थे, जैसे ही शुभम को ये बात याद आई । उसने झट से उपर उस तखनी पर हाथ बढ़ाया और पैसे ढूंढने लगा, अचानक उसके चेहरे पर आश्चर्य की लकीरें खीच गई, वहाँ उसके हाथों से एक कागज जैसा कुछ टकराया उसने हाथों से उठाया तो देखा वाकई वह तो 10 रूपय का नोट था ।
उसने वहाँ और पैसे होने की आशा मे तखनी के ठीक नीचे एक मेज लगाया और फिर उसपर चढ़कर तखनी मे देखा, पर वहाँ और पैसे नही थे । वह उस नोट को लेकर तेजी से दौड़े दौड़े पास के बाजार गया और महीने भर का सामान खरीद लाया । इस तरह उन पैसो के बदौलत पूरा महीना बड़े आराम से कट गया ।
मगर अब आगे का खर्च कैसे चले अब तो पिता के बचाए पैसे भी खत्म हो चुके थे । वह तखनी के पास खड़े-खड़े पिता को याद करके रोने लगा । मासूम शुभम कोइ रास्ता नहीं सूझ रहा था । अब वो खाए तो क्या खाए घर में अनाज का एक दाना तक नहीं था और भूख के मारे उसकी जान जा रही है ।
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शुभम रोते-रोते अपना हाथ, ऊपर उसी तखनी पर ले गया और तखनी को पकड़कर रोने लगा । तभी शुभम को की आंखें एक बार फिर आश्चर्य से भर गई । पिछले बार की तरह इस बार भी उसके हाथों से फिर कोई कागज जैसी वस्तु टकरायी ।
जब उसने उसे उठाकर देखा तो वह 10 ₹ का ही एक नोट था । उसने फिर से मेज लगाकर तखनी मे देखा पर वहाँ और पैसे नहीं थे । वह 10 रूपय का नोट लेकर बाजार गया और उससे पुनः उसने महीने भर का सामान खरीदा । अब वह हर रोज तखनी में नोट तलाशता, मगर पूरे महीने उसे वहाँ कोई पैसा नही मिलता ।
मगर महीने के आखिर में जाने कहाँ से दस का नोट तखनी मे आ जाता । इन पैसो से न सिर्फ उसका महीने भर का खर्च चल जाता बल्कि उसके स्कूल की पढ़ाई भी उन्ही पैसो से होने लगी ।
धीरे-धीरे शुभम बड़ा होकर अपने पैरों पर खड़ा हो गया । उसे एक सेठ के वहाँ नौकरी मिल गई । अब वह बहुत खुश था । शुभम को सेठ ने, जब पहली तनख्वाह दी तो उसने भी अपने पिता के आदर्शों को अपनाते हुए, तनख्वाह के पैसों में से, अपने घर खर्च के लिए जरूरी पैसो को तखनी पर रखा और बाकी पैसों को गरीबों और जरुरतमंदों की सहायता में लगा दिया ।
कहानी से शिक्षा