मीनाक्षी को बचपन से ही नृत्य में बड़ा इंट्रेस्ट था। बैंड बाजे की आवाज हो या फिर नवरात्रि में बजने वाले ढोल उसके पैर थिरकने लगते थे। मीनाक्षी काफी निर्धन परिवार में जन्मी थी। उसके परिवार की आर्थिक हालत इतनी खराब थी, कि एक वक्त का चूल्हा भी बड़ी मुश्किल से जल पाता था।
मीनाक्षी के पिता और उसका भाई दूसरों के खेतों में मजदूरी करके बहुत ही मुश्किल से घर का खर्च चला पाते । ऐसे में मीनाक्षी को शिक्षा दिला पाना भी बड़ा ही मुश्किल था। नतीजन मीनाक्षी की स्कूली शिक्षा भी शून्य ही रह गई। पर उसने अपने लगन के कारण आस पड़ोस के बच्चों से कुछ ज्ञान जरूर अर्जित कर लिया था।
कुछ ही दिनों बाद मीनाक्षी का बाल विवाह हो गया। ससुराल में उसका पति मीनाक्षी को बहुत मानता, पर उसके ससुराल के लोगों का व्यवहार उसके प्रति रुढ़िवादी था। कुछ ही दिनों बाद मीनाक्षी के दो बेटे हुए,पर अचानक मीनाक्षी के जीवन में भूचाल आ गया। उसके पति की मौत हो गई।
मीनाक्षी के ससुराल वालों की आंखों में वह पहले से ही खटकती थी। पति के जाने के बाद वो मीनाक्षी की मौलिक आवश्यकताओं को भी पूरा करने से हाथ खींच लिए मीनाक्षी बिल्कुल ही टूट गई। वो अपने मायके वापस जा सकती थी। मगर आर्थिक रुप से बूरी तरह से जूझ रहे परिवार पर और बोझ नहीं डालना चाहती थी। शायद इसलिए उसने अपनी लड़ाई खुद लड़ने का निश्चय किया।
योग्यता के अनुसार उसने ससुराल वालों की बातें बर्दाश्त करते हुए बाहर काम ढूंढना शुरू किया। मगर मीनाक्षी के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती थी। वो ये कि वो निरक्षर थी। ऐसे में कोई भी ढंग का काम मिलना मुमकिन नहीं था। मजबूरन उसने दूसरों के घर में साफ सफाई का काम करना शुरू कर दिया।
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महीना खत्म होते-होते उसे कुछ पैसे भी मिलने लगे। उन पैसों से उसने अपने ससुराल वालों के मंशा के अनुरूप अपने दोनों छोटे-छोटे बच्चों के साथ उनका घर छोड़कर किराए का घर ले लिया और वहां रहने लगी। दिन गुजरते गए, घर बदलते गए।
मीनाक्षी की किस्मत ने फिर करवट बदली इस बार उसने जिस घर में साफ सफाई का काम पकड़ा, उस घर के मालिक बंसीधर नृत्य कला मैं विश्वविख्यात कलाकार थे। बंशीधर घर पर ही नृत्य की शिक्षा बच्चों को दिया करते थे। मीनाक्षी को ढोलक की ताल पर भला थिरकने से कौन रोक सकता था। वो छुप-छुपकर बच्चो को नृत्य करते देखती और वह भी उनकी तरह ही नृत्य सीखने का प्रयास करती थी। फिर घर जाकर नित्य नृत्य की प्रैक्टिस करती।
मीनाक्षी के इस कला से वहां काम करने वाले अन्य नौकर भी भली भांति परिचित थे। आखिर यह बात कब तक छुपने वाली थी। धीरे-धीरे ये बात पहले मकान मालकिन और फिर मालकिन से बंशीधर के कानों में पहुंच गई। फिर क्या था, छुट्टी के रोज जब मीनाक्षी काम करने शाम को पहुंची। तो बंसीधर ने मीनाक्षी से उसके नृत्य प्रेम के बारे में जानना चाहा, मगर मीनाक्षी ऐसी किसी भी बात से इनकार करने लगी। मगर आखिरकार उसे अपने नृत्य प्रेम को स्वीकार करना पड़ा।
बंशीधर ने उसे अपनी कला का प्रदर्शन करने को कहा, कुछ देर हिचकिचाने के बाद मीनाक्षी ने अपनी जिस कला का प्रदर्शन वहा किया। उसे देखकर बंसीधर स्तब्ध रह गए। उनके काफी प्रयासों के बावजूद उनके छात्र जितना अच्छा नृत्य नहीं सीख सके थे। उससे कहीं अच्छा नृत्य मीनाक्षी ने छुप-छुपकर सीख लिया था।
मीनाक्षी ने बंशीधर का मन जीत लिया था। उस दिन के बाद से बंशीधर ने मीनाक्षी को अपने नृत्य क्लासेज में शामिल कर लिया। देखते ही देखते अपने कौशल और बंशीधर जैसे गुरु की छत्रछाया में मीनाक्षी मशहूर नृत्यांगना बन कर उभरी।
इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है :–
दोस्तों प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती। अगर आप में भी वो प्रतिभा है, कुछ कर दिखाने का जज्बा है तो उसे चरम पर लाने का प्रयास करे, वक्त आपको एक मौका जरूर देगा। जैसा कि मीनाक्षी को दिया ।… “बस एक मौका और जीत हमारी मुट्ठी मे”….
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Writer
Prabhakar
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