सुभाष के पिता ने अपनी छोटी सी कमाई में से अपना पेट काट काट कर और अपने दिन रात की मेहनत से उसे खूब पढ़ाया। जो सपने वो खुद पूरा नहीं कर सके थे। वो सुभाष पूरा करें ऐसा शायद वे चाहते थे । इसलिए न सिर्फ स्कूली शिक्षा उन्होंने सुभाष को दी, बल्कि उसको प्रोफेशनल डिग्री के लिए भी प्रेरित करते रहे।
सुभाष सोचने लगा ऐसी दवाओं को बेच कर क्या फायदा दिनभर दुकान पर मरीज के इंतजार में बैठे रहो फिर शहर दौड़ के जाओ और इन सब के बदले मुनाफा भी बहुत थोड़ा सा ।
सुभाष को समझ में आ गया कि उसकी दुकान पर लोग तो बहुत आते हैं। मगर उसके पैसे कम आने की वजह ये दवाए है जो डॉक्टर लिखते हैं और जिसमे मुनाफा बहुत कम है। उसने सोचा क्यों न ऐसी दवाई बेची जाए। जिस पर मुनाफा थोड़ा ज्यादा हो उसने एम फार्मा के दौरान ही ज्यादा मुनाफा वाली दवाओं के बारे में सुना रखा था।
चूंकि दुकान पर आने वाले ग्राहक गांव के ही थे और वो उसकी वर्षों से चली आ रही दुकान पर आंखें मूंदकर भरोसा करते थे। साथ ही उनमें से अधिकांश पढ़े-लिखे भी नहीं थे। इसलिए सुभाष आसानी से उन्हें समझा-बुझाकर डॉक्टर की लिखी दवाओं के बदले अपनी ज्यादा मुनाफे वाली दवाएं बेचा करता ।
वही ज्यादा पढ़े लिखे बेटे की बदौलत सुभाष के पिता का इलाज शहर के ऊंचे सेंटर पर होने लगा और घर खर्च के बाद भी ठीक-ठाक पैसे बचने लगे। सुभाष के पिता को ऊँची शिक्षा का मतलब पता चल गया था।
एक दिन डॉक्टर ने अस्पताल आए। सुभाष के पड़ोसी से सुभाष के पिता को अस्पताल भेजने को कहा। डॉक्टर ने सुभाष के पिता से सुभाष की करतूत बताई। पिता ने डॉक्टर से सुभाष के आगे से ऐसा न करने का विश्वास दिलाया।
अब तो उसकी दुकान पर भूले-भटके ही कोई मरीज दवा लेने आता। उधर डॉक्टर दूसरे दुकानदार से प्रभावित होकर सारे मरीजों को स्वयं उसकी दुकान से दवा लेने को कहता । वही सुभाष की दुकान पर जाने से उन्हे साफ मना कर देता ।
आखिरकार उच्च शिक्षा प्राप्त सुभाष को उसकी चालाकी भारी पड़ी और उसे उसकी चालाकी का फल मिला । उसकी दुकान पर अब मक्खियां भिनभिनाने लगी। अब तो भूखे पेट रहने की नौबत आ गई।