अधजल गगरी छलकत जाए | Motivational Story In Hindi

"अधजल गगरी छलकत जाए" मुहावरे पर हिंदी मे प्रेरणादायक स्टोरी. Motivational Story In Hindi


 सुभाष के पिता ने अपनी छोटी सी कमाई में से अपना पेट काट काट कर और अपने दिन रात की मेहनत से उसे खूब पढ़ाया। जो सपने वो खुद पूरा नहीं कर सके थे। वो सुभाष पूरा करें ऐसा शायद वे चाहते थे । इसलिए न सिर्फ स्कूली शिक्षा उन्होंने सुभाष को दी, बल्कि उसको प्रोफेशनल डिग्री के लिए भी प्रेरित करते रहे।

  सुभाष पिता की उम्मीदों और आशाओं पर खरा उतरा, उसने बीएससी करने के बाद बी फार्मा और फिर एम फार्मा जैसी प्रोफेशनल डिग्री हासिल कर ली। सुभाष के पिता बेटे की ऊंची डिग्री से गदगद हो गए। उनके पैर जमीन पर अब नहीं टिकते।

  कस्बे में सुभाष के पिता की एक छोटी सी दवा की दुकान थी। पहले वो वहां ढीले ढीले मन से आते। पर अब बेटे के बदौलत उनका सीना चौड़ा हो गया । बाजार के सभी लोग उन्हें पहले से ज्यादा सम्मान देने लगे ।

  चूंकि दवा की दुकान सरकारी अस्पताल के ठीक बगल में थी। इसलिए अस्पताल में जो भी मरीज इलाज के लिए आता। डॉक्टर को दिखाने के बाद सुभाष के पिता की दुकान पर ही सीधे जाता।

  जिससे सुभाष के पिता की कमाई भी ठीक-ठाक हो जाती। चूंकि सुभाष के पिता काफी ईमानदार और सज्जन थे। इसलिए डॉक्टर और मरीज दोनों को उन पर काफी भरोसा था। होनहार बेटा अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद घर वापस लौटा।

   आज बेटे ने वो कर दिखाया था। जो पिता का कभी सपना था। ऐसे बेटे को सामने पाकर कौन पिता खुद को रोक सकता था। पिता की आंखें छलक आई और झट से सुभाष को गले लगा लिया। पूरी रात सुभाष और पिता में बातें होती रही। सुबह सुभाष के पिता दुकान पर चले गए। सुभाष भी सुबह शाम दुकान पर आता रहता। काफी समय गुजर गया ।

  मगर सुभाष कमाई के लिए बाहर कहीं गया नहीं। उधर बुजुर्ग हो चुके पिता की तबीयत दिन प्रतिदिन थोड़ी खराब होती गई। खराब तबीयत के कारण दुकान पर उनका बैठ पाना थोड़ा मुश्किल होने लगा था। हालांकि वो बेटे को इन सब कार्यों में नहीं झोकना चाहते थे परंतु वह दुकान ही तो उनके आय की इकलौती स्रोत थी।
  एक दिन जब सुभाष और पिता दुकान पर बैठे थे। तो पिता ने अपने खराब स्वास्थ्य की तरफ इशारा करते हुए कहा बेटा न हो तो कुछ दिन के लिए ये दुकान तुम ही संभालो। सुभाष को भी पिता की मजबूरी का अंदाजा था।

  इसलिए उसने भी इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए फौरन तैयार हो गया। काफी दिनों से पिता के साथ दुकान पर बैठते बैठते सुभाष को इस काम का काफी अनुभव हो चुका था। इसलिए उसे इस काम को करने में कोई परेशानी नहीं थी।

  अब पिता घर पर आराम करते और बेटा दुकान संभालता। डॉक्टर जो दवा पर्ची पर लिखते उन दवाओं को पिता के सुझाए तरीके से वह हर हफ्ते शहर जाता और बड़ी मंडी से कम दाम मे ले आता और फिर दुकान पर आए मरीजों को वो दवा देकर उनसे पैसा कमाता। हालांकि इस काम में मुनाफा बहुत कम था।

  सुभाष सोचने लगा ऐसी दवाओं को बेच कर क्या फायदा दिनभर दुकान पर मरीज के इंतजार में बैठे रहो फिर शहर दौड़ के जाओ और  इन सब के बदले मुनाफा भी बहुत थोड़ा सा । 

   

 सुभाष को समझ में आ गया कि उसकी दुकान पर लोग तो बहुत आते हैं। मगर उसके पैसे कम आने की वजह ये दवाए है जो डॉक्टर लिखते हैं और जिसमे मुनाफा बहुत कम है। उसने सोचा क्यों न ऐसी दवाई बेची जाए। जिस पर मुनाफा थोड़ा ज्यादा हो उसने एम फार्मा के दौरान ही ज्यादा मुनाफा वाली दवाओं के बारे में सुना रखा था।

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  चूंकि कस्बे में दो ही दुकान थी। एक सुभाष की और एक दूसरे शख्स की मगर दूसरे शख्स की दुकान अस्पताल के पीछे थी और वह कुछ दूसरे काम भी करता था। जिसके कारण वह दुकान पर कम और इधर-उधर ज्यादा भटकता था। ऐसे में उसकी दुकान अक्सर बंद ही रहती थी। दुकान के अक्सर बंद रहने और अस्पताल के पीछे होने के कारण अधिकांश ग्राहक उसे जानते ही नहीं थे और जो जानते थे। वो जाते नहीं थे। 
  ग्राहकों द्वारा उसकी दुकान की अनदेखी के कारण वह भी दुकान पर ध्यान बहुत कम देता और पूरी दवाएं भी नहीं रखता। इन सब बातों के कारण सुभाष की दुकान कस्बे में
 “अंधों में काना राजा के समान थी”
यह बात कुछ ही दिनों में सुभाष की समझ में आ गई थी। उसने सोचा क्यों न इस स्थिति का फायदा उठाया जाए। यही सब सोचकर सुभाष दुकान पर वो दवाए रखना शुरु कर दिया । जिसमें मुनाफा खूब था।

  चूंकि दुकान पर आने वाले ग्राहक गांव के ही थे और वो उसकी वर्षों से चली आ रही दुकान पर आंखें मूंदकर भरोसा करते थे। साथ ही उनमें से अधिकांश पढ़े-लिखे भी नहीं थे। इसलिए सुभाष आसानी से उन्हें समझा-बुझाकर डॉक्टर की लिखी दवाओं के बदले अपनी ज्यादा मुनाफे वाली दवाएं बेचा करता ।

  धीरे-धीरे दुकान का मुनाफा काफी बढ़ने लगा। घर पर कहीं ज्यादा पैसे आने लगे। पहले तो  पिता के इलाज के बाद घर का खर्च चलाना मुश्किल था।

  वही ज्यादा पढ़े लिखे बेटे की बदौलत सुभाष के पिता का इलाज शहर के ऊंचे सेंटर पर होने लगा और घर खर्च के बाद भी ठीक-ठाक पैसे बचने लगे। सुभाष के पिता को ऊँची शिक्षा का मतलब पता चल गया था।

  वो कुछ ही दिनों में बेटे के द्वारा लाए गए। अच्छे नतीजों से फूले नहीं समा रहे थे। उन्होंने सुभाष से कहा


“बेटा मैं तो ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था। शायद इसीलिए ज्यादा कुछ नहीं कर सका। मगर मैं इस बात को समझता था। इसलिए मैंने तुम्हें ऊंची शिक्षा दिलाने का पहले से ही ध्यान दिया ।आज देखा तुम्हारी ये शिक्षा हमारे कितने काम आ रही है। पहले जिस दुकान से खाने को नहीं अटता था। आज दुकान वही मरीज वही पर आज हमें किसी चीज की कमी नहीं है। बेटा अब ये दुकान तुम्ही संभालो। इसको ठीक से तुम ही चला सकते हो। मैं नहीं ऐसा कहकर पिता दुकान से चले गए। 
  पहले जो भूले भटके वह दुकान पर आते भी थे। पर बेटे पर उन्हें इतना भरोसा हो चुका था कि अब वे दुकान पर आना बिल्कुल बंद कर दिए। एक दिन डॉक्टर के पास काफी खराब हालत में एक मरीज आया। डॉक्टर ने उसे कुछ दवाई लिखकर उसे फौरन लाने को कहा मरीज के घर वाले दौड़े सुभाष की दुकान पर पर्चा लेकर गए।
  सुभाष ने फटाफट अपनी अधिक मुनाफे वाली दवाईयां निकालकर उन्हे दी। घरवाले दवाओं को लेकर भागे अस्पताल पहुंचे। डॉक्टर ने जब उन दवाओ को देखी तो उन्हे बहुत डाटा और पर्ची पर लिखी दवाए लाने को उनसे बोला वो वापस दवा खाने गए और सुभाष से पर्चे पर लिखी दवाएं ही देने को कहा

  पर सुभाष ने तो डॉक्टर की लिखी जाने वाली दवाओं को थोक मंडी से खरीद कर लाना ही बंद कर दिया था। अब तो सुभाष के माथे पर पसीने छूटने लगे। कुछ न सूझते देख उसने दवाएं न होने का बहाना बना दिया। धीरे-धीरे कई बार डॉक्टर ने ये पाया कि सुभाष मरीजों को पर्चे पर लिखी दवाएं न  देकर खराब किस्म की मुनाफे वाली दवाए देता है।

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  जिससे मरीजों की हालत ठीक होने की बजाय दिन-प्रतिदिन और खराब होती जा रही है और जिसके  कारण डॉक्टर को अक्सर मरीजों से दो बात सुननी पड़ रही है। डॉक्टर समझ गया कि ज्यादा पढ़ा लिखा बेटा अपनी होशियारी दिखा रहा है।

एक दिन डॉक्टर ने अस्पताल आए। सुभाष के पड़ोसी से सुभाष के पिता को अस्पताल भेजने को कहा। डॉक्टर ने सुभाष के पिता से सुभाष की करतूत  बताई। पिता ने डॉक्टर से सुभाष के आगे से ऐसा न करने का विश्वास दिलाया।

  रात को भोजन करते समय पिता ने डॉक्टर द्वारा कही बातें सुभाष से कहीं चूंकि डॉक्टर और पिता के बीच हुई बातों के बारे में सुभाष को गांव के ही एक आदमी से पहले ही जानकारी मिल गई थी। इसलिए इस मुश्किल से निकलने के लिए वो तैयार बैठा था। अभी पिता ने अपनी बात कहनी शुरू ही की थी। कि सुभाष बीच में ही बोल पड़ा और उसने पिता को ही पढा ढाला।

  बेटे की सारी बातें पिता को ठीक लगी। सुभाष फिर अपने काम पर लग गया। अब तो वो डॉक्टर के खिलाफ ही मरीजों के कान भरता । उसने मरीजों को समझाया कि वो नहीं बल्कि डॉक्टर ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए कमीशन वाली खराब किस्म की दवाई लिखते हैं।

  डॉक्टर ने कई बार पिता को समझाने का प्रयास किया। मगर हर बार उसे सुभाष अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों में ले लेता। मगर सुभाष की आंख  मिचौली कितने दिन चलने वाली थी। धीरे-धीरे गांव के सभी लोग सुभाष की चालाकी समझने लगे और उसकी दुकान पर न जाकर दूसरी दुकान पर जाने लगे।

  मरीजों के बढ़ते से दूसरे दुकानदार का भी मन दुकान में लगने लगा। चूंकि वह जानता था। ये लोग सुभाष की दुकान छोड़ यहां क्यों आ रहे हैं। इसलिए उसने वो चलाकी नहीं कि जो सुभाष ने की थी।

  उसने वही दवाई दुकान पर रखनी और मरीजों को देनी शुरू कर दी। जो डॉक्टर लिखा करते थे। इस प्रकार एक तरह से वह मरीजों और डॉक्टर का मित्र बन बैठा। वहीं दूसरी तरफ सुभाष सबकी नजरों में खटकने लगा।

  अब तो उसकी दुकान पर भूले-भटके ही कोई मरीज दवा लेने आता। उधर डॉक्टर दूसरे दुकानदार से प्रभावित होकर सारे मरीजों को स्वयं उसकी दुकान से दवा लेने को कहता । वही सुभाष की दुकान पर जाने से उन्हे साफ मना कर देता ।

  आखिरकार उच्च शिक्षा प्राप्त सुभाष को उसकी चालाकी भारी पड़ी और उसे उसकी चालाकी का फल मिला । उसकी दुकान पर अब मक्खियां भिनभिनाने लगी। अब तो भूखे पेट रहने की नौबत आ गई।

 

 Moral Of The Story 


Moral of the story
                



author

Karan Mishra

करन मिश्रा को प्रारंभ से ही गीत संगीत में काफी रुचि रही है । आपको शायरी, कविताएं एवं‌‌ गीत लिखने का भी बहुत शौक है । आपको अपने निजी जीवन में मिले अनुभवों के आधार पर प्रेरणादायक विचार एवं कहानियां लिखना काफी पसंद है । करन अपनी कविताओं एवं विचारों के माध्यम से पाठको, विशेषकर युवाओं को प्रेरित करने का प्रयत्न करते हैं ।

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